स्वामी श्रद्धानंद महर्षि दयानंद के योग्य शिष्य थे। उन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए देश के कई हिस्सों में गुरुकुल कांगड़ी और अन्य संस्थाओं की स्थापना की थी। एक बार रुड़की चर्च के पादरी फादर विलियम ने स्वामी जी से पत्र लिखकर कहा- स्वामी जी, मुझे लगता है कि अगर मैं हिंदी सीख लूं तो शायद भारत में मैं अपने धर्म का प्रचार बेहतर ढंग से कर पाऊंगा। क्या इसके लिए आप मुझे अपने गुरुकुल में प्रवेश दे सकते हैं? मैं वादा करता हूं कि अपने अध्ययन के दौरान मैं ईसाई धर्म की चर्चा नहीं करूंगा और उसके प्रचार की कोई कोशिश नहीं करूंगा।  
स्वामी जी ने पत्र के जवाब में लिखा- फादर, गुरुकुल कांगड़ी में आपका खुले दिल से स्वागत है। आप यहां अतिथि बनकर हमारी सेवाएं ले सकते हैं। मगर आपको एक वचन देना होगा। जब तक आप यहां रहेंगे तब तक आप अपने धर्म का खुलकर प्रचार-प्रसार करेंगे ताकि हमारे छात्र भी ईसा मसीह के उपदेशों को समझ सकें और उन्हें ग्रहण कर सकें। मैं चाहता हूं कि हमारे छात्र धर्मों का आदर करना सीखें। धर्म प्रेम सिखाता है बैर नहीं। हर व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह अपने अलावा दूसरे धर्मों को भी जाने। अधिक से अधिक धर्मों के विषय में जानकर हम एक अच्छे इंसान बन सकते हैं।  
स्वामी जी का यह जवाब पढ़कर फादर अभिभूत हो गए। वे जब तक गुरुकुल में रहे, छात्रों को ईसाई धर्म के बारे में बताते रहे। यहां रहकर भारतीयों को लेकर उनकी कई धारणाएं बदल गईं। वे जीवन भर गुरुकुल के लिए कार्य करते रहे।